मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

सम्मान

चित्राभार: अमर उजाला 
 (यदि अमर उजाला के व्यवस्थापक वर्ग को आपत्ति हो तो कृपया यहाँ बताएँ, पोस्ट हटा दी जाएगी। ) 
उस पत्रकार को सैल्यूट जिसने यह फोटो ली। 
ऑटो के फर्श पर ठूँसी गई घायल युवती और उसके उपर पैर रख कर सीट पर बैठे पुलिस वाले की निजता का सम्मान करते हुए मैंने यह फोटो धुँधली कर दी है (हालाँकि इसे आप आज के अमर उजाला में देख सकते हैं।) लेकिन प्रशासन 'मानवता' का सम्मान करना कब सीखेगा?

प्रश्न उठते हैं:
(1) क्या घायलों को त्वरित मेडिकल या एम्बुलेंस मुहैया कराने की व्यवस्था है ?
(2) यदि नहीं तो पुलिस वाले यदि उन्हें जल्दी से हॉस्पिटल ले जाना चाहें तो क्या उन्हें स्वतंत्रता है कि हुए खर्च की परवाह न करें? क्या हुए खर्च का भुगतान त्वरित और उचित ढंग से होगा?
(3) विधि, तंत्र की व्यवस्थाएँ और माहौल क्या ऐसे हैं कि पुलिस ऐसे मामलों में परिणति की परवाह किए बिना संवेदनशीलता और त्वरा के साथ निर्णय ले?  
(4) मृत हो या जीवित, मानव शरीर को सम्मान देना चाहिए, इस बात की ट्रेनिंग (संस्कार की बात तो आजकल दकियानूसी मानी जाती है) क्या प्रशासनिक कर्मचारियों को दी जाती है?

23 टिप्‍पणियां:

  1. पुलिसिया मदद का खास पुलिसिया तरीका ।

    थोड़ी हमदर्दी दिखा दी साहब लोनों ने नहीं तो टेंपों के पीछे बांध कर धसीटते हुये या फिर छत पर बांध कर भी ले जा सकते थे ।
    टेंपो चालक को किराया दिया की नहीं यह खोज का विषय है ।

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  2. शर्म से सिर झुक गया है। और अन्दर से एक लावा साफूट रहा है क्या किया जाये इन पोलिस के दरिन्दों का।

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  3. यह तो एक छोटा सा नमूना भर है

    इनके ऐसे ऐसे कारनामों से तो दुनिया दूभर हो गई है।

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  4. SHAMEFUL!पुलिस से इसके अतिरिक्त क्या अपेखाअपेक्षा की जा सकती है !

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  5. ab ham kya kahe aap ne itna kah diya fir bhi acha nahi he



    shekhar kumawat

    http://kavyawani.blogspot.com/

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  6. कहा था ना कि वाक़ई अक्सर ही शर्मसार होती हूँ। आज फिर शर्मसार हुई मेरी मानवता.....!

    पोस्टमार्टम के बाद कितनी ही बार ऐसा दृश्य होता है। बोरे में भरी लाशें और ट्रक पर फेंके जा रहे राशन में ज्यादा अंतर नही होता उनके लिये। और वो माँ बाप जिनका होनहार बेटा एक दुर्घटना में मर गया जिम्होने अपने चलते उस शरीर को खरोंच नही लगने दी... देखते रहते हैं उस शरीर की दुर्दशा....!!

    आहत...!

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  7. मर्माहत हो गया मैं ..।
    यहां कुछ भी कहना शब्दों में ..
    शायद कम ही होगा ।
    आभार.!

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  8. विचलित करता दृश्य है। लेकिन आसपास के लोग इसओर ध्यान देना मुनासिब नहीं समझते। कोर्ट कचहरी का ‘लफ़ड़ा’ जो होता है।

    आखिर कब यह तस्वीर बदलेगी?

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  9. जब ऐसी पोस्ट पढता हूँ खुद से शर्मसार होता हूँ

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  10. कब कब तक होगा ऐसे...आख़िर ये लोग भी इंसान है...

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  11. mai ek photographor hu es wajah se mai kahana chahuga ki polish wala sahi baitha hai. aap jo dekhna chahate hai aapko wahi dekh raha hai dhanyawad
    MAHESH LODWAL

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  12. फोटोग्राफर महेश जी,
    ऑटो में पर्याप्त जगह है। घायल को और तरीके से भी ले जाया जा सकता है। एक दूसरा पुलिस वाला भी झाँकता दिख रहा है। ऑटो में पीछे दो से तीन व्यक्ति बैठ सकते हैं।
    जिसने फोटो खींची और उस पर रिपोर्ट दी, वह मौके पर उपस्थित था और वह फोटोग्राफर भी था - प्रेस फोटोग्राफर।
    उसने जो देखा, बयान किया उसे ही दुहराया भर है। नादान हूँ, मेरी नज़र को धोखा हो सकता है। हो सकता है कि वह फोटोग्राफर भी नादान रहा हो।
    धन्यवाद, कि आप ने प्रकाश डाला।

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  13. गिरिजेश राव
    नमस्कार, धन्यवाद आपके उत्तर देने का ! आपने कभी घायल व्यक्ति को बिठाकर देखा है, नहीं तो बिठाकर देखिये, क्योकि मैं तो नहीं बिठा पाया , घायल व्यक्ति बेठने की बजाय लेटना पसंद करता है | तो पुलिस वाला उसे कैसे साथ लेकर बेठा सकता है | पुलिस वाला दुसरे तरीके अपना सकता था लेकिन गिरिजेश जी तरीके के लिए भी समय की आवश्यकता होती है | तरीके के अभाव में यदि महिला की मौत हो जाती तो सब तरीके धरे रह जाते | स्थिति परिस्थिति जन्य है तो इसे विवाद का विषय बनाने का औचित्य ही नहीं | ये बात उपरोक्त प्रियजनो को समझ आना चाहिए साथ ही उस पत्रकार को |
    मै पुनः दोहरौगा की पुलिस वाले ने पैर घायल युवती पर नहीं बल्कि पैर रिक्सा के ऊपर ही रखे है | युवती मेरी माँ भी हो सकती है लेकिन घायल को पहले उपचार की आवश्यकता है अन्य चीजे गौण है | धन्यवाद MAHESH LODWAL

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