मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

दुर्गा दुर्गति दूर कर, मंगल कर सब काज

कल एक बहुत ही प्रतिभावान युवा ब्लॉगर ने चैट के दौरान शब्दों से खिलवाड़ करने की मेरी प्रवृत्ति पर 'जस्टिन मार्क्स' के फिल्मों की बात की तो एक दूसरे मनयुवा ब्लॉगर ने 'व्यास' परम्परा की बात की। प्रसन्न हुआ, हालाँकि इन हस्तियों के आगे कहीं भी नहीं ठहरता। प्रसन्न हो लेने में कोई बुराई नहीं है - ना काहू से दुश्मनी ना काहू से प्रेम। 
कल ही नवरात्रि के अंतिम दिन एक चित्र पर दृष्टि पड़ी, शरद कोकास जी का वार्षिक नवरात्र कविता आयोजन देख ही रहा था और हरिओम शरण के गाये एक भजन का प्रारम्भ याद आया - दुर्गा दुर्गति दूर कर, मंगल कर सब काज। दुर्ग नामक दैत्य के संहार के कारण दुर्गा नाम पड़ा लेकिन भजन रचयिता ने दुर्गति से जोड़ कर इस शब्द को बहुत व्यापक अर्थ दे दिया है। शब्दों के साथ सार्थक खिलवाड़ करने प्रवृत्ति नई नहीं है।  
यह चित्र स्त्री चीयर लीडर्स का है - उसी आइ पी एल से है जो मेरे पानी पी पी कर कोसने के बावजूद होता रहा है!
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चित्राभार - हिन्दी दैनिक पत्र 'अमर उजाला'
                                           
स्पोर्ट्स में उत्साहवर्धन और अच्छे प्रदर्शन पर प्रसन्नता की अभिव्यक्ति को उत्सवी रंग देने के लिये चीयर लीडर्स का प्रयोग होता है। दूसरी तरह से कहूँ तो बाज़ार ने एक और तरीका ढूँढ़ लिया जिसमें स्त्री(या मनुष्य मात्र को ही) एक कमोडिटी बना दिया गया है। इस दूसरी दृष्टि से देखने पर सब कुछ बाज़ारू लगता है। अस्तु।
प्रारम्भ में जब भारत में चीयर लीडर्स का प्रयोग हुआ तो उनके वस्त्रों और भावभंगिमाओं पर बहुत हो हल्ला कटा। संस्कृति के संस्कार खतरे में आ गये और दरकन में एक और चटक जुड़ गई। पश्चिम के लिये वैसे ड्रेस सामान्य थे लेकिन भारत या एशिया के लिये सामान्य नहीं थे, यह तो होना ही था। ध्यान देने योग्य है कि पुरुष प्रधान समाज में विश्व श्रेणी का या कोई भी सिंगल स्पोर्ट्स आयोजन मुख्यत: पुरुष वर्चस्व केन्द्रित ही रहा है। फुटबाल हो या क्रिकेट, देश का जयगान पुरुष खिलाड़ी ही करते हैं। पुरुष वर्चस्व के क्षेत्र में दखल देती स्त्री (अब तो समीक्षक और कमेंटेटर भी होने लगी हैं), बाज़ार से कथित समझौते करती स्त्री, अपनी 'मार्केटिबिलिटी' की सम्भावनाओं का दोहन करती स्त्री... जाने कितने ही वाक्यांश इन चीयर लीडर्स को देख कर मन में आते हैं। परंतु मुझे इनमें कुछ भी अवांछित या असामान्य नहीं लगता। अगर लगता है तो उतना या वैसा ही लगता है जैसे पुरुषों को यह सब करते देख कर लगता है।  
मानव की विकास यात्रा स्वयं को और अपने परिवेश को बेहतर बनाने की रही है। अब जब कि इंटरनेट और वैश्वीकरण के युग में सीमायें टूटी हैं, सभ्यताओं की आपसी बातचीत और लेनदेन भी बढ़े हैं। सार्थक और कूड़ा दोनों बहुतायत से आये हैं। जो कुछ भी घट रहा है, वह मनुष्य मात्र के लिये घट रहा है। फिर स्त्री को अलग करके उसे अलग तरह के मानदंडों की कसौटी पर कसना (कहना न होगा कि ये मानदंड पुरुष श्रेष्ठता और सुविधा के हित में हैं) एक तरह का भीषण अन्याय है। 'नकार' का अन्याय। अन्याय इसलिये कि नई भूमि पर पैर जमाने से उसे वंचित कर दिया जाय।
स्त्री स्वतंत्रता (?) के उन रेडिकलों को जो यह कहते हैं कि देह हमारी, वस्त्र हमारे, व्यक्तित्त्व हमारा - चाहे जैसे रहें, तुम्हें क्या?, किनारे कर के सोचने पर एक बहुत ही सुन्दर बात ध्यान में आती है - परिवेश से तादात्म्य बैठा कर चुपके से, धीरे से अपनी जगह बना लेने वाली बात। अब आप इसे उनका समझौतावादी कदम कहें या यह कहें कि यह तो एक तरह से उन्हीं आदिम पुरुष प्रधान प्रवृत्तियों के आगे झुकना हुआ जो स्त्री पर नकेल ऐसे कसती रहती हैं जैसे कि वे पशु हों, मुझे तो नयनों को अभिराम लगने वाला यह दृश्य ग्राह्य लगता है। हिन्दू संस्कारवान मन को यह वैसा ही मनभावन लगता है जैसे उत्सव या विवाहादि अवसरों पर स्त्री की गरिमामयी उपस्थिति लगती है। संस्कार संतृप्त हुआ और नई बात भी हो गई!
साथ ही यह भी ध्यान में आता है कि संसार की दुर्गति को दूर करने वाली 'दुर्गा' अपनी दुर्गति के प्रति भी अब जागृत है। उसका यह अवतरण परिवर्तन की एक धीमी लेकिन दृढ़ प्रक्रिया को दर्शाता है। वह अब आ रही है - हर क्षेत्र में और उसके आने से मंगल ही होगा। इस प्रार्थना के साथ प्रात की बात का अंत करता हूँ: 
या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:।    

6 टिप्‍पणियां:

  1. दुर्गा ही दुर्गति दूर करेगी, अधंकार का भार हटायेगी सबके सिरों से।

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  2. गिरिजेश जी,

    इतने सारगर्भित निष्कर्ष!!धन्य हुआ। ऐसे हीविचार हमारी सोच को परिपक्वता प्रदान करते है।

    आभार!!आचार्यवर

    बस दुर्गति हरो हे दुर्गा!!

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  3. आपने मुद्दे को बड़ी शालीनता और गंभीरता से उठाया है।

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  4. संस्कार संतृप्त हुआ और नई बात भी हो गई!
    ....शानदार। पढ़कर अपना मन भी तृप्त हुआ।

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  5. निष्पत्ति यह है कि सौन्दर्य प्रियता मनुष्य की स्वाभाविक गति है मगर फिर इतने अस्वाभाविक लोग क्यों हैं ?
    मेरे अल्प बुद्धि में हिन्दी में शब्द चीयर लीडर्स /लेडीज होना चाहिए !

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