मंगलवार, 1 मार्च 2011

लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी - 11


मेरे पात्र बैताल की भाँति चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर,
पूछते हैं हजार प्रश्न।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूं उत्तर

...नित दिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।

(ञ)
खदेरन के मन में आग लगी थी। खेत की फसल कोई और काट ले गया और उनके हिस्से आई लेंगियावन1 की आग। चहुँ ओर उठती लपटें। किनारे की लपटें बीच को बढ़ती हुई। यह अंत है?
प्रश्न नहीं मूर्ख! अग्निसंस्कार की सोच।...उनका क्या जो अभी भी भोगे जा रही हैं? एक जीवित अंकशायिनी घर में और दूसरी मृत बाहर खेत में... पंडित हो! तोहरे आस...अगर चमटोली से कोई दाहा करने को तैयार नहीं हुआ तो?
बाहर का सन्नाटा भीतर पैसता चला गया। जुग्गुल वाणी उससे टकरा टकरा गूँजने लगी ... तू चमार हो गइलss। जा के फेंकरनी के फूँकss... तिजहर हो चुकी थी। माटी खराब होने का डर - कल सबेरे तक दाहा नहीं हुआ तो गन्हाने लगेगी। खदेरन सिर पकड़ कर दुआरे बैठ गये। लाठी ठेकता मगहिया डोम आ पहुँचा। हाथ जोड़ कर बोला – महराज, आपन फरज नेभावे अइलीं हें। के बड़ के छोट, अंत बजरिया बँसवे जा। कहीं तss बिमान बना दीं? (महाराज! अपना फर्ज़ निभाने आया हूँ। बड़ा हो या छोटा, अंत समय सब को बाँस का ही सहारा मिलता है। कहिये तो विमान बना दूँ?)  
खदेरन मुँहगड़ी तन्द्रा से बाहर आये और उनके इशारे के बाद मगहिया बाँस काटने चल दिया।
फर्ज़, पंडित! तुम्हारा फर्ज़ क्या है?...किस संयोग मरी फेंकरनी! ...यही समय मिला था? जीती तो शायद मेरा जीना और मुहाल हो जाता। तुमसे क्या था? प्रेम? तुमने उसका इस्तेमाल किया और क्या हुआ उसका?...तुमने तो उसका नाश ही कर दिया! ...अभी और भ्रष्ट होना बाकी है... खदेरन की आँखें भरती चली गईं।
डोम टिखटी बना कर कुछ देर खड़ा रहा और फिर चुपचाप चला गया।
अग्निहोत्र? सूतक में अग्निहोत्र?... फेंकरनी के मरने पर सूतक कैसा? क्या लगती थी वह तुम्हारी? अंकशायिनी कि परिणीता कि दोनों? ... सन्न खदेरन दिशा निहारते शब्द ढूँढ़ने लगे लेकिन जुग्गुल वाणी के सिवाय कुछ नहीं था, कुछ भी नहीं... अग्निहोत्र के मंत्र खो गये। शिक्षा, संस्कार, वर्ण अभिमान सब एक मृत चमइन में सिमट गये थे।    
माँ की याद आई ...घबराओ नहीं, देवी कामाख्या की धरती का पुण्य खाली नहीं जायेगा। अपने जीवनकाल में ही समाहार देखोगे...। कितने पुण्य करूँ माँ? मेरे समझाने से तो चमटोली वाले इसे फूँकने से रहे, लेकिन एक बार कोशिश तो करनी ही होगी। साँस भरते उठे और चमटोली की ओर चल दिये।
ह,ह,ह, हि, हीsss थूकते हुये गिरधरिया हँस पड़ा।
“चमइन रखले बानींsss त फूँकी के? कुजतिहा के फेरा में अब रउरो लम्मर लागी बाबा! (चमाइन को रखे तो उसे फूँकेगा कौन? बाबा! कुजात के फेरे में अब आप का भी नम्बर लगेगा)” जो दो चार लोग पहले से उसे समझाने में लगे थे वह भी चुप हो गये। मन का चोर – फेंकरनी की औलाद खदेरन की भी तो हो सकती है! पापी बाभन! भुगतो अब...
खदेरन के पाँव अकेले नहीं थे। उनके साथ थे - निन्दा, उपहास,चुनौती, जुग्गुल के जोग और अन्धे चंडी चाचा की सम्भावित चालें।
झाँखी झूरा में मच्छर पीड़ित हुमचावन ने खदेरन को धीरे धीरे आते देखा। दिन का काम खत्म हो गया था। वह उन लोगों में था जिन्हें अपनी भावनाओं की रत्ती भर भी समझ नहीं होती लेकिन जुग्गुल के पास सूचना पहुँचाने जाते हुये उसने भी मन के भारीपन को महसूस किया। चलते हुये उसे अपना अँड़ुआ कुछ अधिक ही कष्टदायी लग रहा था। जुग्गुल को पहले से ही खबर हो गई थी। बात बात में ही हुमचावन ने बेमौसम कटहल फलने की बात उसे बतायी तो वह मुस्कुराने लगा – देखीं त ओकर तरकारी कइसन होला (देखें तो सही, उसकी सब्जी कैसी बनेगी)?
घर जाते हुये हुमचावन नींबू की बाड़ के पास रुक गया। उसे ध्यान आया कि बाड़ के अन्दर उसके कोले का भी एक नींबू लगा हुआ था। हुमचावन को पहली बार जगह भयानक लगी। सहमा सा अपनी मड़ई की ओर चल दिया।
(ट)
गोंयड़े के खेत में लाश के पास पत्थर प्रतिमा बैठी थी –शांत माई। दिन भर हिली तक नहीं थी। भूख, प्यास, दिसा मैदान कुछ नहीं। बेटी की मौत का दु:ख घना था या उसकी माटी के ठिकाने लगने की चिंता? नहीं कुछ और - मौत के बहुत नजदीक। भभक कर बुझने जैसी नहीं, महिया2 के ठंढी होने जैसी।  शीत सन्नाटा, अन्धकार।
मतवा वहाँ ढेबरी रख आईं। पिछ्ली रात के भस्मचिह्न पर दुबारा आग जलाते करेजा मुँह को आ रहा था – माई से बोलना क्या, उसकी ओर देखने की भी हिम्मत नहीं हुई। वह अग्निशाला में नींद में डूबे शिशु के पास लौट आईं। ममता अपने उफान पर थी। रात।
बहुत देर से जमीन पर धोती के मैली होने की चिंता किये बिना बैठे खदेरन को देख अग्निशाला की ओर इशारा कर बोल पड़ीं – जौन भइल तौन भइल। अब इनकर फिकिर करीं। एतना सोच में परि के का होई। ...बिहाने खुदे फूँकि देब। खेतवे में।(जो हुआ सो हुआ। अब बच्चे की फिक्र कीजिये। इतनी सोच में पड़ने से क्या होगा?...सबेरे स्वयं दाहसंस्कार कर दीजियेगा। खेत में ही।)  
भीतर ही भीतर भभक उठे खदेरन - सही तो कह रही है। जिस गाँव समाज में मनुष्य की मृत देह ठिकाने लगाने तक की सदाशयता नहीं, उसकी परवाह क्यों करना? सीवान3 के भीतर दाहा नहीं किया जाता लेकिन यह गाँव किस श्मशान से कम है?...
टाँग खींचते हुये चँवर में फेंक भी आया जा सकता है, वहीं दफनाया जा सकता है...नहीं! नहीं!!...नहीं!!!!
सन्नाटे से टकराती प्रतिध्वनियाँ झोंके सी आने लगीं। नहीं, अग्निहोत्री ब्राह्मण अभी जीवित है...मैं स्वर्ग से लौटा हूँ, अब कभी भ्रष्ट नहीं होना... वामाचारी रक्त अभिषेक - वह शूद्रा परिणीता थी। उसका अग्नि संस्कार होगा, अवश्य होगा।
क्षितिज पर चन्द्रमा ने उग कर रात गहराने का संकेत किया। सियारों की हुआँ हुआँ तेज हो गई थी। अग्निशाला में सोये शिशु की मुस्कान अगर खदेरन देख पाये होते तो माँ के ललाट पर लाल गोले को याद करते हुये उन्हें  कोस नहीं रहे होते...
...सबेरे का गोला अभी निकला भी नहीं था लेकिन बस्साती फेंकरनी के नंगे घूमने की बात कई जुबानों पर थी। इस बार यह पक्का पता था कि उसे जुग्गुल ने देखा था। इन सबसे बेखबर खदेरन अग्निहोत्र और चूल्हे के लिये रखी गई लकड़ियों के बोटे छाँटने में लगे थे। मतवा ने कुंड को कुरेदा, आग जीवित थी। (जारी)
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1 गन्ने की फसल कट जाने के बाद उसके सूखे पत्तों को खेत में बिखेर कर चारो किनारों से आग लगाने की क्रिया।
2 गुड़ बनाने के लिये गन्ने के रस को औंटा(आग पर खौलाया) जाता है। गर्म गाढ़ा रस महिया कहलाता है।
3 गाँव बस्ती की सीमा