गुरुवार, 10 मार्च 2011

69-2

पिछले भाग से जारी ...
इस दृष्टि से उन्हें विपरीत या विरुद्ध न कह कर पूरक कहना अधिक उपयुक्त है। यह बात अलग है कि ऐसी दृष्टि पाने के लिये बहुत तपना पड़ता है। नैसर्गिक अधूरापन ही आकर्षण को जन्म देता है। खालीपन को प्रकृति स्वीकार नहीं पाती लेकिन अधूरेपन को सनातन बनाये रखती है ताकि यह विधान जारी रहे, सृष्टि चलती रहे और संतुलन भी बना रहे। विधान, सृष्टि और संतुलन भी कैसे? एक दूसरे पर निर्भर लेकिन फिर भी स्वतंत्र तत्त्वों की एक दूजे की परिक्रमा जैसे।
69 की बात हो और नर नारी, उनके आपसी आकर्षण और मिलन संभोग की बात न हो! – हो ही नहीं सकता। पाश्चात्य और पूर्वी कामशास्त्रों में संभोग की एक सबसे उत्तेजक और विवादास्पद मुद्रा 69 वर्णित है जिसमें स्त्री पुरुष एक साथ एक दूसरे के यौनांगों का मुख द्वारा उत्तेजन करते हैं और चरम आनन्द की प्राप्ति करते हैं।
khajuraho
69_2
  खजुराहो के मन्दिरों पर इस मुद्रा के शिल्प हैं और पश्चिमी सभ्यता के चित्रों और शिल्पों में भी यह मुद्रा पाई जाती है। पुरुष प्रधान समाज की सबसे पूर्ण कामकला विषयक कृति कामसूत्र में वात्स्यायन ऐसी संभोग मुद्रा को काकवृत्ति से जोड़ते हैं (2/9) – कौआ गन्दी चीजों पर मुँह मारता है। वह औपरिष्टक नाम से चर्चित विभिन्न मुख मैथुन मुद्राओं का प्रयोग विवाहिताओं के साथ करने से मना करते हैं।
संभोग को साधना के एक मार्ग या यज्ञ की तरह देखने की परम्परा के दर्शन प्रश्नोपनिषद, छान्दोग्य, वृहदारण्यक और वामाचारी मान्यताओं में होते हैं। वामाचार में तो इसका पूरा तंत्र ही है। वहाँ ‘प्रज्ञा’ को नारी तत्व और ‘उपाय’ को नर तत्व माना गया है। दोनों के मिलन अर्थात संभोग को ‘प्रज्ञोपाय’ कह कर उसे समाधि जैसी श्रेणी में रखा गया है। वैदिक बलि यूप का शैव मत में योनिपीठ पर विराजमान लिंग में परिवर्तन भी साधना के इस मार्ग की ओर संकेत करता है। जाग्रत लिंग को कुंडलिनी के जागरण से भी जोड़ा गया है। उल्लेखनीय है कि 69 मुद्रा में गर्भाधान हो ही नहीं सकता। अर्थ यह कि यह या तो केवल आनन्द प्राप्ति के लिये है या केवल साधना के लिये। ऐसी और मुद्रायें भी हो सकती हैं लेकिन उनमें ऐसी बराबरी नहीं होती। पूरक तत्वों के एक दूसरे को उठान देने की प्रवृत्ति पर सोचने पर इस मुद्रा का साधना पक्ष ही अधिक प्रबल लगता है। यिन और यांग का उन्मुक्त, प्रगाढ़ और पूर्णत: वर्जनाहीन संयोग – अस्तित्त्व बनाये रखते हुये भी सर्वस्व निछावर कर देने की साधना। शारीरिक दृष्टि से भी सबसे प्रकट और सबसे गुह्य अंगों का संयोग, आलोड़न, विलोड़न। प्रतीत होता है कि ऐसी मुद्रायें कभी रहे मातृप्रधान समाज की ध्वंसावशेष हैं। विलुप्त हो चुके उस समाज की प्रवृत्तियों ने वज्रयान, तंत्र, वामाचार आदि मार्गों में पैठ बना ली। हाँ, रूप अवश्य बहुत परिवर्तित हो गया होगा।
आप को लग रहा होगा कि अचानक 69 पर लिखने की मुझे क्यों सूझी? बेटा क्रिकेट का नया नया फैन हुआ है और उसके चक्कर में अभी जारी विश्वकप के रिक्शाखींचू उद्घाटन समारोह को मुझे देखना पड़ा। संतान जो न कराये वरना क्रिकेट से घृणा करने वालों में मैं भी सम्मिलित हूँ। उस समारोह में प्रसिद्ध रॉक गायक ब्रायन एडम्स ने अपना एक बहुत प्रसिद्ध गीत Summer of 69 प्रस्तुत किया। ‘69 की गर्मी’ ने 69 अंक के भूले बिसरे संयोगों की याद दिला दी। उत्सुकता हुई कि इस गीत का 69 है क्या बला जो यह इतना मशहूर हुआ? कोफ्त भी हुई कि मैंने आज तक इसे सुना क्यों नहीं? रॉक संगीत के शब्द पल्ले नहीं पड़ते सो शब्दों के लिये नेट खँगालना पड़ा। पता चला कि ब्रायन एडम्स और जिम वल्लांसे द्वारा लिखा यह गीत ‘रेकलेस’ अलबम में 1985 में रिलीज हुआ था। अपन राम उस समय बज्र भोजपुरी इलाके में इश्क़ के शुरुआती पाठ पढ़ रहे थे – खाक पता चलता! गीत को पढ़ा तो लग गया कि दोनों लिखने वाले बला के लंठ हैं।
अभी सोच ही रहा था कि दो दिनों पहले बारह वर्षों के बाद एक मित्र ने मुझे फेसबुक पर ढूँढ़ निकाला। बेचारा मनु आज तक फेसबुक पर ऊर्मि को नहीं ढूँढ़ पाया है। बागी बलिया के निवासी यह मित्र फाइनाइट एलीमेंट एनलिसिस के जटिल सबरूटीन एक ही बार में कॉपी पर लिख देते थे जिन्हें रन कराते त्रुटि सन्देश भी नहीं आते थे! कमरा नं. एस-69 में आलसी राम निवास करते थे और उसी विंग की सत्तरी शृंखलानामधारी किसी कमरे में यह महाशय।
...  69 पर लिखना अपरिहार्य हो गया।
’69 की गर्मी’ पर वापस आते हैं। इस गीत में दो पर्ते हैं जिनकी चर्चा अपने कवितायें और कवि भी ब्लॉग पर इस शृंखला की समापन कड़ी के रूप में करूँगा। चलते चलते बस एक बात – जिस तरह से अकेली कहानी जैसी कोई बात नहीं होती वैसे ही किसी कविता या गीत का कोई अकेला अर्थ नहीं होता ... अब सात दिनों के लिये आलसी राम को विदा दीजिये।